गोबर का भू़ंड



देहातों में एक कीड़ा पाया जाता है। जिसे गोबर का कीड़ा कहते हैं, जिसे गाय, भैंस के गोबर की बू बोहत पसंद होती है। ये कीड़ा सुबह उठकर गोबर की तलाश में निकलता है और सारा दिन जहाँ से गोबर मिले उसका गोला बनाता रहता है और शाम होने तक अच्छा ख़ासा गोबर का गोला बना लेता है। फिर इस गोबर के गोले को धक्का मारते हुवे अपने बील तक ले जाता है। बील पर पहुंचकर उसे अहसास हो जाता है के गोला तो बड़ा बना लिया लेकिन बिल का सुराख छोटा है। बुहत कोशिश के बावजूद वो गोला बिल में नहीं जा सकता।

सारी ज़िन्दगी दुनिया का माल,  हराम की पहचान  किये बग़ैर हम जमा करने में लगे रहेते हैं। जब आख़री वक़्त करीब आता है तब इंसान को पता चलता है के ये सब तो अपन के साथ नहीं जा सकता और इंसान अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई को हसरत से देखता रह जाता है।
हम इंसान दुनिया की सच्चाई को सदियों से ढूंढ रहे हैं। उनमें एक सच्चाई ये है जिसे हर कोई जानता है और उसे पा लेता है। यह शाश्वत सत्य इस शरीर की मृत्यु है। एक दुनिया हमारे सामने आई और चली गई और हमें भी वापस जाना है।

लेकिन हम इसी सच से नज़रें चुराते है। प्रकृति हमारे चारों ओर इस सच्चाई की घोषणा करती रहती है। हम हर दिन अपने आस-पास अपने जैसे जिते जागते लोगों को कब्रों में उतारते रहते हैं, लेकिन हम सच्चाई से अपनी आँखें चुरा लेते हैं। हम नज़रें ना चुरायें तो क्या ये ज़ुल्म ओ ज़्यादती मुमकिन होती? काश इंसान ये समझ जाये की इसे ज़िंदगी दूसरों को लाभ पहुँचाने केलिए मिली है, किसी का हक़ मारकर माल कमाने के लिए ये दुनिया में नहीं आया है बल्कि ग़रीब नादार और ज़रूरत मंदों की मदद के लिए आया है।

इस बेहोशी से पहले काश हम इस सच को स्वीकार करने वाले बन जाये।

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