कबीर जी ने कहा है :-
अच्छे दिन पिछे गए, गुरू से किया न हेत।
अब पछतावा क्या करे, चिडि़या चुग गई खेत।।


हे #मानव शरीरधारी जीवों ! सावधान हो जाओ अपने मूल उद्देश्य को पहचानो।
              #सूक्ष्मवेद में बताया है कि जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भक्ति नहीं करते, उनको क्या हानि होती है?

कबीर, हरि के नाम बिना, नारि कुतिया होय।
गली-गली भौकत फिरै, टूक ना डालै कोय।।

सन्त गरीब दास जी की वाणी से :-
बीबी पड़दै रहे थी, ड्योडी लगती बाहर।
अब गात उघाड़ै फिरती हैं, बन कुतिया बाजार।
वे पड़दे की सुन्दरी, सुनां संदेशा मोर।
गात उघाड़ै फिरती है करें सरायों शोर।।
नक बेसर नक पर बनि, पहरें थी हार हमेल।
सुन्दरी से कुतिया बनी, सुन साहेब के खेल।।

भावार्थ :- मनुष्य जीवन प्राप्त प्राणी यदि भक्ति नहीं करता है तो वह मृत्यु के उपरान्त पशु-पक्षियों आदि-आदि की योनियाँ प्राप्त करता है, परमात्मा के नाम जाप बिना स्त्रा अगले जन्म में कुतिया का जीवन प्राप्त करती है। फिर निःवस्त्रा होकर नंगे शरीर गलियों में भटकती रहती है, भूख से बेहाल होती है, उसको कोई रोटी का टुकड़ा भी नहीं डालता। जिस समय वह आत्मा स्त्री रूप में किसी राजा, राणा तथा उच्च अधिकारी की बीवी (पत्नी) थी। वे उसके पूर्व जन्मों के पुण्यों का फल था जो कभी किसी जन्म में भक्ति-धर्म आदि किया था।
वह सर्व भक्ति तथा पुण्य स्त्रा रूप में प्राप्त कर लिए, वह आत्मा उच्च घरानों की बहू-बेटियाँ थीं। तब पर्दों में रहती थी, काजु-किशमिश डालकर हलवा तथा खीर खाती थी, उनका झूठा छोड़ा हुआ नौकरानियाँ खाती थी। उनको सत्संग में नहीं जाने दिया जाता था क्योंकि वे उच्च घरानों की बहुएें तथा बेटियाँ थी, घर से बाहर जाने से बेइज्जती मानती थी। बड़े घरों की इज्जत इसी में मानी जाती थी कि बहू-बेटियाँ का पर्दों में रहना उचित है। इन कारणों से वह पुण्यात्मा सत्संग विचार न सुनने के कारण भक्ति से वंचित रह जाती थी। उस मानव शरीर में वह स्त्री गले मे नौ-नौ लाख रूपये के हार हमेल पहनती थी, नाक में सोने की नाथ पहनती थी, उसी हार-सिंगार में अपना जीवन धन्य मानती थी।

 वे अब कुतिया का जीवन प्राप्त करके नंगे शरीर गलियों में एक-एक टुकडे़ के लिए तरस रही होती हैं, शहर में पहले
सराय (धर्मशाला) होती थी। यात्रा रात्रि में उनमें रूकते थे, सुबह भोजन खाकर प्रस्थान करते थे। वह पर्दे में रहने वाली सुन्दर स्त्री कुतिया बनकर धर्मशाला में रूके यात्रा का डाला टुकड़ा खाने के लिए सराय (धर्मशाला) में भौंकती है। रोटी का टुकड़ा धरती पर डाला जाता है। उसके साथ कुछ रेत-मिट्टी भी चिपक जाती है, वह सुन्दरी जो काजु-किशमिश युक्त हलवा-खीर खाती थी, भक्ति नही करती थी, उस रेत-मिट्टी युक्त टुकडे़ को खा रही है। यदि मनुष्य शरीर रहते-रहते पूरे
सन्त से नाम लेकर भक्ति कर लेती तो ये दिन नहीं देखने पड़ते।

अधिक जानने के लिए देखे साधना  TV 07:30pm से

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