”आत्म प्राण उद्धार ही, ऐसा धर्म नहीं और। कोटि अश्वमेघ यज्ञ, सकल समाना भौर।।“
जीव उद्धार परम पुण्य, ऐसा कर्म नहीं और। मरूस्थल के मृग ज्यों, सब मर गये दौर-दौर।।


           यदि एक आत्मा को सतभक्ति मार्ग पर लगाकर उसका आत्म कल्याण करवा दिया जाए तो करोड़ अवश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है और उसके बराबर कोई भी धर्म नहीं है। जीवात्मा के उद्धार के लिए किए गए कार्य अर्थात् सेवा से श्रेष्ठ कोई भी कार्य नहीं है। अपने पेट भरने के लिए तो पशु-पक्षी भी सारा दिन भ्रमते हैं। उसी तरह वह व्यक्ति है, जो परमार्थी कार्य नहीं करता, परमार्थी कर्म सर्वश्रेष्ठ सेवा जीव कल्याण के लिए किया कर्म है। जीव कल्याण का कार्य न करके सर्व मानव मरूस्थल के हिरण की तरह दौड़-2 कर मर जाते हैं। जिसे कुछ दूरी पर जल ही जल दिखाई देता है और वहां दौड़ कर जाने पर थल ही प्राप्त होता है। फिर कुछ दूरी पर थल का जल दिखाई देता है अन्त में उस हिरण की प्यास से ही मृत्यु हो जाती है। ठीक इसी प्रकार जो प्राणी इस काल लोक में जहां हम रह रहे है। वे उस हिरण के समान सुख की आशा करते हैं जैसे निःसन्तान सोचता है सन्तान होने पर सुखी हो जाऊँगा। सन्तान वालों से पूछें तो उनकी अनेकों समस्याऐं सुनने को मिलेंगी। निर्धन व्यक्ति सोचता है कि धन हो जाए तो में सुखी हो जाऊं। जब धनवानों की कुशल जानने के लिए प्रश्न करोगे तो ढेर सारी परेशानियाँ सुनने को मिलेंगी। कोई राज्य प्राप्ति से सुख मानता है, यह उसकी महाभूल है। राजा (मन्त्री, मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति) को स्वपन में भी सुख नहीं होता। जैसे चार-पांच सदस्यों के परिवार का मुखिया अपने परिवार के प्रबन्ध में कितना परेशान रहता है। राजा तो एक क्षेत्र का मुखिया होता है। उसके प्रबन्ध में सुख स्वपन में भी नहीं होता। राजा लोग शराब पीकर कुछ गम भुलाते हैं। माया इकट्ठा करने के लिए जनता से कर लेते हैं फिर अगले जन्मों में जो राजा सत्यभक्ति नहीं करते, पशु योनियों को प्राप्त होकर प्रत्येक व्यक्ति से वसूले कर को उनके पशु बनकर लौटाते हैं। जो व्यक्ति मनमुखी होकर तथा झूठे गुरुओं से दिक्षित होकर भक्ति तथा धर्म करते हैं। वे सोचते हैं कि भविष्य में सुख होगा लेकिन इसके विपरित दुःख ही प्राप्त होता है। कबीर साहेब कहते हैं कि मेरा यह ज्ञान ऐसा है कि यदि ज्ञानी पुरुष होगा तो इसे सुनकर हृदय में बसा लेगा और यदि मूर्ख होगा तो उसकी समझ से बाहर है।

“कबीर, ज्ञानी हो तो हृदय लगाई, मूर्ख हो तो गम ना पाई“

       |●~● जगतगुरु संत रामपाल जी महाराज ●~●|

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